दिल्ली आंदोलन की राजनीति और किसानों की लाचारी
1 min readमुद्दा
नई दिल्ली। दिल्ली में किसानों की दुर्दशा के लिए राजनैतिक दलों को जिम्मेदार ठहराया जाये तो गलत नहीं होगा। कोरोना काल से ही एमएसपी की लड़ाई लड़ रहे किसानों की मेहनत पर पानी फिरता नजर आ रहा हैं और फसल को निर्धारित मूल्य दिलाने की लड़ाई अंत में राष्ट्र धर्म से टकरा कर खत्म होती नजर आ रही हैं। पूरे देश में तिरंगे के अपमान को लेकर सोशल मीडिया पर तरवारें खिचीं हुई है और किसान आंदोलन की हवा निकल चुकी हैं। हालांकि किसान नेता राकेश टिकैत के आंसुओं ने थोड़ा-बहुत माहौल बनाया है, लेकिन उसे भी राजनैतिक दल भुनाने में लगे है। गाजीपुर बॉर्डर पर आंदोलन में बहुत पहले ही राजनैतिक दलों को दूर रखने मांग उठी थी। लेकिन भीड़ जुटाने में मग्न किसान नेता यह भूल गए कि इतनी बड़ी तादात में लोगों को संतुलित रखना खतरे से खाली नहीं होगा और गणतन्त्र दिवस के दिन यही अनहोनी भारी पड़ी। फिर प्रकरण को तूल देने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर इमोशनल होने का नाटक किया जा रहा है। तिरंगे पर मचे बवाल पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या? सिर्फ एक व्यक्ति की करतूत पर हम पूरे समाज को दोषी ठहरा सकते हैं। दूसरी बात यह है कि जिसने तिरंगे की शान में गुस्ताखी की उसके खिलाफ कार्रवाई में देरी किस लिए हुई। तीसरा और सबसे अहम सवाल, जब भीड़ से निकल कर व्यक्ति विशेष ने तिरंगे को उतार कर धार्मिक ध्वज लगाया तो प्रशासन कहां था। रहा सवाल किसानों की लाचारी का तो मध्य वर्ग का किसान हमेशा लुटता रहा है कभी बिचौलियों के हाथ तो कभी अधिकारियों के चंगुल में फंसकर। राजनैतिक नायक कहे जाने वाले नेता भी किसानों की आमदनी पर गिद्ध की दृष्टि रखते हैं। किसानों का दर्द तो समझ में आता है कि तीन-तीन माह बाद भी फसल का समर्थन मूल्य नहीं मिला और उसके बाद धान रिजैक्ट बताकर घर भेज दिया गया। मध्य वर्गीय किसान आंसू पोछ कर घर चला गया। लेकिन किसान आंदोलन की राह सत्ता हथियाने की फिराक में राजनैति दल यह भूल रहे हैं कि उनकी सरकारों ने भी किसानों का शोषण किया। यह बात मध्य वर्ग के लोग भलीभांति जानते है कि कुछ होने वाला नहीं!, शायद इस लिए बिना जद्दो जहद किये फसल को किसी भी मूल्य पर बेचने को तैयार रहते हैं। इन हालातों में किसान का भविष्य गर्दिश में ही नजर आ रहा हैं।